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प्रायश्चित्त-समुश्चय। .. आगे प्रायश्चित्के विना व्रतोंकी व्यर्थता बताते हैंप्रायश्चित्तेऽसति स्थान चारित्रं तद्विना पुनः। न तीर्थन विना तीर्थान्निर्वृत्तिस्तद् वृथा व्रतं ॥५॥
अर्थ-आपश्चित्तके प्रभावमें चारित्र नहीं है। चारित्रके अभावमें धर्म नहीं है और धर्मके प्रभावमें मोक्षकी प्राप्ति नहीं हैं इसलिए व्रत अर्याद दीक्षा धारण करना न्यर्ष है।
भावार्थ-प्रायश्चित् ग्रहण करनेसे ही व्रतोंकी सफलता है. अन्यथा नहीं ॥५॥
आगे प्रायश्चित्त के नाम बताते हैं:रहस्सं छैदनं दंडो मलापनयनं नयः। प्रायश्चित्ताभिधानानि व्यवहारो विशोधनं ॥६॥
अर्थ-रहस्य, छेदन, दंड, पलापनयन, नय-नीति-पर्यादाव्यवस्था-क्रम, व्यवहार और विशोधन ये सब प्रायश्चित्के नाम हैं।
आगे प्रायश्चित्तविधि न जाननेमें हानि बताते हैं:प्रायश्चित्तविधि सूरिरजानानः कलंकयेत् । आत्मानमथ शिष्यं च दोषजातान शोधयेत् ॥७॥ __ अर्थ-पायश्चित विधिको न जाननेवाला आचार्य प्रथम अपनेको अनन्तर शिष्यको भी कलंकित-मलिन कर देता है। अतः वह अपनेको और शिष्यों को दोषोंसे नहीं बचा सकता।