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________________ प्रायश्चित-समुच्चय । असकृत्कारो, असानुवीची अप्रयत्नप्रतिसेवी २२२.२ यह सोलहवीं उच्चारणा । ये सब मिलकर सोलह उच्चारणाएं. होती हैं। इनकी प्रस्तार संदृष्टि इस प्रकार है। १२.१२, ११२२,११२२, ११११,२२२२, ११११११११,२२२२२२२२, अब अक्षसंक्रपणार्थ गाथा कहते हैंपढमक्खे अंतगए आइगए संकमेइ वदिअक्खो। दोणि विगतुं गतं आइगए संकमेइ तइअक्खो॥ __ अर्थ-आगाढकारणकृत और अनागाढकारणकृत यह प्रथमात, सरकारी और असत्कारी यह द्वितीय अन, सानुवीची और असानुवीची यह तृतीय अक्ष और प्रयत्नप्रतिसेवी और अप्रयत्नप्रतिसेवो यह चतुर्थ अत है। इनमें से प्रथमाक्ष संचरण करता है अन्य अन उसी तरह रहते हैं। इस तरह संचरण करता हुआ प्रथमात अंतके अनागादकारणकृत दोषको प्राप्त होकर पुनः लौटकर पहले आगाढकारणकृतदोष पर जब माता है तब द्वितीयात सकृत्कारीको छोडकर असत्कारीमें संचरण करता है। फिर उस अतके वहीं पर स्थित रहते हुए प्रथमात संचरण करता हुआ अंतको पहुंच जाता है तब दोनों ही प्रथमान और द्वितोयान अंतको पहुंचकर ओर लौटकर जब आदिको
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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