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________________ प्रायश्चित्त अष्टम (तीन उपवास ) दशम (चार उपवास ). द्वादश (पांच उपवास) अर्धमासोपवास, मासोपवास: परमासोपवास, संवत्सरोपवास आदि है उसके अनन्तर दिवसादिको क्रमसे दीक्षाच्छेद हैं उसके अनन्तर सर्वोत्कृष्ट मूलप्रायश्चित्त हैं ।।७१॥ इस प्रकार मूलगुणोंमें संभव दोपोंका प्रायश्चित्त कहा गया अब उत्तर गुणोंमें संभव दोपोंका प्रायश्चित्त बताते हैं - द्रुमूलातोरणौ स्थास्नू आतापस्तद्वयात्मकः । चलयोगा भवंत्यन्ये योगाः सर्वेऽथवा स्थिराः॥ अर्थ-वृक्षमूल और अतोरण ये दो योग स्थिर योग हैं। आतापन योग चल और स्थिर दोनों तरहका है। और शेष अभ्रावकाश, स्थान, मोन और वीरासन ये चार योग चल योग हैं। अथवा सभी योग स्थिर योग हैं ।। ७२ ॥ भंजने स्थिरयोगानामपस्कारादिकारणात (?)। दिनमानोपवासाः स्युरन्येषामुपवासना ॥७३॥ _ अर्थ-नेत्र दर्द, पेट दर्द, शिरः शूल, विश्चिका, सर्वोपसग डॉस: मच्छर आदि कारणोंसे स्थिर योगोंका भंग हो जाय तो योग धृतिक जितने दिन अवशिष्ट रह गये हों उतने उपवास प्रायश्चित्तं हैं। तथा अन्य स्थान, मौन अवग्रह आदि योगोंका भंग होनेपर आलोचनाको आदि लेकर प्रतिक्रमण सहित उपवास पर्यंत प्रायश्चित्त है ।। ७३ ॥
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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