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चूलिकां ।
१७७ अपने विषयसे न रोकनेका एक उपवास, रसनाके दो उपास, घ्राणके तीन उपवास, चतुके चार उपवास और श्रोत्रके पांच उपवास हैं ॥३॥
आगे षडावश्यकके संबंधमें कहा जाता हैवंदनानियमध्वंसे कालच्छेदे विशोषणं ।
खाध्यायस्य चतुष्केऽपि कायोत्सर्गो विकालतः। __अथे-वंदना आवश्यक और नियम आवश्यकको न करने
और उनके कालको अतिक्रमण करनेका उपवाप प्रायश्चित्त है तथा चार प्रकारके खाध्यायको न करने और उनके कालको अतिक्रमण करनेका कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है। भावार्थ-अहंत प्रतिमा, सिद्धमतिमा, तपोगुरु, श्रुतगुरु और दीक्षागुरुकी स्तुति प्रणाम करना बंदना क्रिया है और देवसिक रात्रिक आदिमें व्रतोंमें लगे हुए दोषोंका निराकरण करना नियम क्रिया है। तथा बंदनाका काल संध्याकाल है और सूर्यविवके आधे छिप जानेसे पूर्व देवसिक नियमका प्रारम्भ है तथा प्रभास्फोट-भाग'फाटनेसे पहले रात्रि नियमकी समाप्ति है। उक्त वंदना क्रिया और नियपक्रियाके न करनेका तथा उनके उक्त कालके उल्लं. घन करनेका उपवास प्रायश्चित्त है। तथा खाध्यायका काल भी दिनके समय पूर्वाह्नमें तीन घड़ी दिन चढ़ जाने पर है। अपराहमें तीन घड़ी दिन अवशिष्ट रह जानेसे पूर्व है। रात्रिके समय प्रथपभागमें है जो तीन घड़ी रात बीत जाने पर है और
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