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प्रायश्चित्तगुण दो दो तरहके हैं-यतियोंके ओर श्रावकोंके । यतियोंके मूलगुण अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग इत्यादि. अठाईस हैं। श्रावकोंके मूलगुण मद्यत्याग, मांसल्याग, मधुत्याग पंच उदुवरफलोंका त्याग ऐसे अनेक प्रकारके आठ हैं। तथा यतियोंके उत्तरगुण-आतापन, तोरण, स्थान, मौन आदि. अनेक हैं और श्रावकों के उत्तर गण सामायिक, प्रोषधोपवास आदि हैं। इनमें लगे हुए दोषोंकी शुद्धि संक्षेपसे कही जाती है। एकेन्द्रियादिजन्तूनां हृषीकगणनाद्वधे । चतुरिन्द्रियकुद्धानां प्रत्येकं तनुसजनं ॥३॥ __ अर्थ-एकेन्द्रिय जीव पांचमकारके हैं, पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और वनस्पति कायिक। वनस्पति कायिकके दो भेद हैं-प्रत्येक वनस्पति और अनन्तकाय वनस्पति । एक जीवके एक शरीर हो वह प्रत्येककायिक जीव हैं जैसे सुपारी नारियल आदि। अनन्त जीवोंके एक शरीर हो वे अनन्तकायिक जीव है जैसे गुडूची, सूरण आदि । आदि शब्दसे द्वीन्द्रियादि जीवोंका ग्रहण है। शंख, सीप आदि दो इंद्रिय जीव, कुंथु, चींटी आदि तेइंद्रिय जीव, भौंरा मक्खां आदि चौइ द्रिय जीव, और मनुष्य, मत्स्य, मकर आदि. पंचेंद्रियजीव होते हैं। इनमें से एकेन्द्रिय जीवोंको आदि लेकर
चौइन्द्रिय पर्यंतके जीवोंका वध हो जाने पर उन प्रत्येकको - इन्द्रियसंख्याके अनुसार कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है।