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प्रायश्चित्त-समुच्चय । जो उसे रुचे वहीं प्रायश्चित्त है। भावार्थ-कारणवश सम्यक्त्व परिणामोंसे च्युत होकर मिथ्यात्व परिणामों को प्राप्त हो जाय अनन्तर वह अपने इन परिणामोंकी निन्दा और गर्दा करता . हुआ पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हो और उसकी इस परिणतिको कोई न जान सके तो उसके लिए वही प्रायश्चित्त है जो कि उसे रुचे, अन्य नहीं ॥२५॥ यः सामोगेन मिथ्यात्वं संक्रान्तः पुनरागतः । जिनाचार्याज्ञया तस्य मूलमेव विधीयते ॥२५२॥ ___ अर्थ- जो मिथ्यात्वको प्राप्त होकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हो तथा उसको इस परिणतिको कोई जान ले तो सर्वत्रदेव और प्राचार्यों के उपदेशानुसार उसे मूल प्रायश्चित्त ही देना चाहिए ॥ २५२॥ प्रायश्चित्तं जिनेन्द्रोक्तं रत्नत्रयविशोधनं । प्रोक्तं संक्षेपतः किंचिच्छोधयन्तु विपश्चितः ॥
अर्थ-जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा गया, रत्नत्रयकी शुद्धि करने वाला यह छोटासा प्रायश्चित्त-संग्रह नामका शास्त्र संवेपसे मैंने (गुरुदास-प्राचार्यने) बनाया है उसको प्रायश्चित्तादि नाना शास्त्रोंके ज्ञाता विद्वान् शुद्ध करें ॥ २५३ ॥ .. ॥ इति प्रायश्चित्ताधिकारः सक्षमः ॥ . .