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________________ छेदाधिकार। ११३ उससे प्रायश्चित्त लेना अव्यक्त नामका नौवां आलोचना दोष है। (१०) इसके अपराधके वरावर ही मेरा अपराध है इसका प्रायश्चित्त तो यही जानता है अतः इसको जो प्रायश्चित्त दिया गया है वही मेरे लिए भी युक्त है इस तरह उस अपनी बराबरी वालेसे ही मायश्चित्त ले लेना दशव तत्सेवी नामका आलोचना दोष है। २-कर्मवश प्रमादके उदयसे जो अपराध मुझसे हुआ है वह मेरा अपराध शान्त हो इस तरहके शब्दोच्चारणों द्वारा अपने अपराधका व्यक्त प्रतीकार करना प्रतिक्रमण नामका: दूसरा प्रायश्चित्त है। ३-कोई दोष आलोचनामात्रसे ही शुद्ध हो जाते हैं और कोई प्रतिक्रमणसे शुद्ध होते हैं परन्तु कोई दोष ऐसे हैं जो आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनोंके मिलने पर शुद्ध होते हैं इसीको तदुभय कहते हैं। ४-संसक्त (मिले हुए) अन्न, पान, उपकरण भादिको छोड़ देना विवेक पायश्चित्त है। अथवा शुद्ध आहारमें भी अशुद्धपनेका संदेह और विपर्यय हो जाय, अथवा अशुद्ध शुद्धका निश्चय हो जाय, अथवा त्याग को हुई वस्तु पात्र या मुखमें आजाय, अथवा जिस वस्तुके ग्रहण करनेमें कपाय आदि भाव उत्पन्न हों उन सबको त्याग देना विवेक प्रायश्चित्त है। ५-अन्तर्मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास आदि कालका नियम कर कायोल्सर्ग आदि करना ब्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है।.
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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