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पुकार करते समय वह अपने भगवान् को पूर्व भक्तो की 'पाण' दिलाता है ताकि धर्म की रक्षार्थ वह शीघ्र अवतरित हो जाय
चडि बेगौ चक्र धरि, करै काई ढील करता । गळी बढ गाय रौ वजे ब्राह्मण विरता ॥ अनंत जरणा री प्रारण, धणी कर खवर धरम रो। वेद व्यास री आरण, प्राण वारट ईसर री॥ मेघ रिष अन मामै घडी, घरणी वाट जोवै धरणी । तू हमै जेज राखै त्रिगुण, तनै आँण भगता तणी ॥
-ज्ञान चरित, कवित्त १३५ कवि का मुख्य विषय अध्यात्म होने के कारण उसकी रचनायो मे शान्त रस की ही प्रधानता है पर वह अपने जातिगत प्रभाव से पूर्णत. मुक्त नहीं हो सका है। यही कारण है कि भक्ति के क्षेत्र मे भी वह ओजपूर्ण वर्णन करता है
केई ढोल कसाळ, धरा ब्रह्मड धडक्कै । सुरणाय सालुले, राग सीधूनौं रहक्क ।। वीर हाक तिण वार, देव दारणव जूटा दल । वाजै घाउ निहाउ, हेक हथवाह कर हल ।। हीसुए विढे भड हसरा, कुन्त कुहाड जुध करें। त्रिधारा खड्ग वाहै त्रिगुण, त्रिगुण हाथि दाणव तरै ।।
-ज्ञान चरित, पद्य १४३ अपने प्रभु की वीर झाकी उतारते हुए कवि ने वीररस के सहायक वीभत्स आदि का भी वर्णन किया है
असुर अमर आहुड , असख भड़ गुडं भिड अत । रुण्ड मुण्ड रडबड, विमळ नदीआ वहिस रत ॥ कध संध कडिडिस, हाड मुडिस हेकारा । आविटिसै असराँण धमक ले सै धीकारा ॥