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सुरनर किन्नर असुर विद्याधर, प्रणमइ बेकर जोड़िजी ॥२॥
(पृ० ११२) 'करम' की गति भी 'अलख' अगोचर है। उसे कोई नहीं जान सकता"पूरव कर्म लिग्वत जो सुख दुख-जीव लहइ निरधार जी। उद्यम कोडि करइ जे तो पिण, न फनइ अधिक लगार जी"||२||
यही कारण है कि 'एक जनम लगि फिरइ कुप्रारा, एके रे दोय नारिजी। एक उदरभर जन्मइ कहीइ, एक सहस प्राधार जी ॥३॥ एक रूप रभा सम दोसड, दीसे एक कुरूप जो। एक सहूना दास कहीये, एक सहना भूप जी ॥४॥ (पृ० ११६) ___ कवि के कृतित्व मे पाथिक देह से ऊपर उठाने की अमोघ शक्ति है । वह हमे अपनी कमजोरियाँ वतलाकर हतोत्साहित नही करता वरन् आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है । वह अज्ञान का पर्दाफाश कर ऐसी झिल मिलाती हुई अमरज्योति को खीच लाना चाहता है जिसके प्रकाश मे समझा जा सके'विणजारा रे वालभ सुणि इक मोरी बात,
तूं परदेशी पाहुणउ वि०॥ विरगज़ारो रे मकरि तूं गृहवास, आजकाल भई चालणउ ॥वि०॥॥
(पृ० ६३) कवि का एक एक पद आध्यात्म रस का ऐसा स्निग्ध छीटा है जो प्यासे की प्यास नही जगाता वरन् उसके हृदय को इतना निर्मल और प्रशान्त बना देता है कि वह थोड़ी देर के लिए अपने पापको भूल जाता है, जड-जंगम की सीमाएं टूट जाती हैं।
(ख) कला पक्षःजैन कवि सामान्यतः पहले धर्मोपदेशक और बादमें कवि रहे
(स)