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सारै' शब्द आता है उससे अनेक लोगो को यह भ्रम हुआ और होता है कि इस रास के रचयिता का नाम मतिसार है। स्वर्गीय मोहनलाल देसाई ने अपने जैन गुजर कविनो-प्रथम भाग के पृष्ठ ५०१ मे भी इसका रचयिता मतिसार' ही बतलाया था, यद्यपि उन्ही के उद्धत प्रशस्ति मे जिनराजसूरिभिर चयाँचके' स्पष्ट उल्लेख था । हमने इस भूल की ओर उनका ध्यान आकर्षित किया तो उन्होंने जैन गुर्जर कविप्रो के तीसरे भागमे उसका संशोधन करके रचयिता का नाम मतिसार की जगह जिनराज सूरि रख दिया । पर आज भी कई ज्ञानभंडारो की सूचियों मे भ्रमवश मतिसार नाम दिया जाता है।
थोड़े समयमे ही यह रास इतना लोकप्रिय हुआ कि स०१६८१ मे रचना के केवल २० वर्ष वाद हो इसकी एक सचित्र प्रति तैयार की गई जिसे वादशाही चित्रकार शालिवाहन ने चित्रित की थी। वह प्रति अभी कलकत्ता के श्री बहादुरसिंह जो सिंघी के संग्रह में है । उसके चित्र बहुत ही सुन्दर हैं और बहुत से पेज तो परे लबे] पेज मे चित्रित हैं जिसमें कथा का भाव चित्रकार ने बड़ी खूबी से अकित किया है। प्रस्तुत प्रति के कुछ पत्रो एवं चित्रो के ब्लाक इस ग्रथ मे प्रकाशित किए जा रहे है इसके लिए हम श्री नरेन्द्रसिंह जी सिंघी के आभारी है , प्रति की लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है____ 'इति श्री सालिभद्र महामुनि चरित्र समाप्त ।। स वच्चान्द्र गजरसरसामिते द्वितीय चैत्र सुदि पंचमी तिथी शुक्रवारे वलूलवल सकल भूपाल भाल विशाल कोटीरहीर श्री मज्जहागीर पातिसाहिपति सलेमसाहि वर्तमान राज्ये श्रीमज्जिनशासन वन प्रमोद
१- इसी कारण जिन राजसूरि जा के दूसरे गजसुकुमाल रोस को उन्होने पृष्ट ५५३में उनके नाम से अलग रूप से उल्लिखित किया था ।
प्रान द काव्य महोदधि मौक्तिक १ मे सन् १९१३ मे शालिभद्ररास प्रकाशित किया गया था। उसका रचयिता पीजिनसिंहसूरि शिष्य मतिसागर बतलाया गया था जो मतिसार शन्द पर ही आधारित था ।
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