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'पड भाषा' भाखइ भली, 'चवदइ विद्या' लाघ । , लिखइ 'अठाहर लिपी' सदा, सिगले गुणे अगाध ॥५॥
जयकीति ने तो प्रारम्भिक अध्ययन के मुहूर्त और उत्सव के सम्बंध मे भी सुन्दर प्रकाश डाला है । उनका बनाया हुआ रास इसो ग्रंथ के परिशिष्ट मे दिया गया है इसलिए उसका उद्धरण नही दिया जा रहा है श्रीसार रचित 'जिनराजसूरि रास भी हमारे ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह मे छप चुका है । जैन-पागमों और व्याकरण कोश, छन्द, अल कार, काव्य-शास्त्र का अध्ययन आपने दीक्षा के अनन्तर गुरुश्री के पास किया था। न्यायशास्त्र के भी आप बड़े विद्वान् थे । प्रोगरे मे भट्टाचार्य के पास 'चिन्तामणि' नामक नन्य-न्याय के महान् ग्रथ का ओपने अध्ययन किया था। जयकीर्ति ने लिखा हैकाव्य, तर्क, ज्योतिप गणित र व्याकरण, छन्द, अलङ्कार । नाटक नाममाला अधिक रे, जारणइ शास्त्र विचार ॥११॥भ०॥ तेर वर्षे आगरइ रे. भण्यउ चितामणि तर्क। सगली विद्या अभ्यसी रे, भट्टाचारज सम्पर्क ॥१२॥भ०।।
अर्थात् आपका विशेष अध्ययन आगरे मे किसी भट्टाचार्य विद्वान से करवाया गया था। सं० १६६७ मे आपकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर अकबर-प्रतिवोधक युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने आसावली में इन्हे वाचक पद से अलंकृत किया था। स०१६५७ मे आपकी दीक्षा हुई थी, अत. १० वर्ष तक आपने अनेक विषयों और शास्त्रो का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उसी समय से प्राप कविता भी करने लगे थे। प्रापकी उपलब्ध रचनाओ मे सवतोल्लेख बाली सर्व प्रथम रचना गुणस्थान विचार गभित पाव नाय स्तवन स० १६६५ का है । जो जैन शास्त्र के कर्म सिद्धान्त और आत्मोत्कर्ष की पद्धति के सम्बन्ध मे है इससे आपका शास्त्रीय ज्ञान उस समय तक कितना बढ़ चुका था, विदित होता है।
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