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जिनराजसूरि-कृति कुसुमांजलि
रतनसी जूठा श्रासकरण, संघ साथि सुखकार ॥ १८॥ भ० ॥ जात्र करी चउथी वली रे, देवकरण संधि उदार । उतकृष्टी करणी करी रे, उफल कीयड अवतार ||१६||०|| मानइ मोटा महिपती रे, मानइ मुकरवखान |
राउल रागा प्रति घणुं रे, दे सद्गुरु नइ मान ||२०||०|| मुकरवखान वखाणियउ रे, नागइ श्री पतिमाह ।
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पाट जोग लायक श्रइ रे, राजसमुद्र गज गाह ||२१|| || ठाम ठाम श्रावक वडा रे, वसि कीचा वड़भाग | वचन कला र ज्या घरा रे, गुरु ऊपरि बहु राग ॥२२॥भन देस प्रदेसे विचरता रे, जिनसिंहमूरि गरणवार । चउमासउ चावउ करइ रे, बीकानेर मझार ॥२३॥भ०|| तिरिण श्रवसरि जिगसिंह नइ रे, तेड़ावइ जहागीर । चाली श्राव्या मेटतइ रे, लह वह्यउ तेथि सरीर || २४|०|| श्रवसर जारण तिसइ समइ रे, वोलइ राजसमुद्र । सरदहिज्यो तुहे पूजजी रे, आणी भाव प्रक्षुद्र ||२शाभ ० ॥ गछ पहिरावीसि मु किसु रे, भडारइ सुजगीस । पुस्तक सखर लिखावि नइ रे, छलाख सहस छत्रीस ||२६||भ० || उपवास करिसु पाचसय रे, नाम तुहारइ जेह ।
ते पुण्य थाज्यो तुम्ह नइ रे, सुसीस नी करणी एह ॥ २६ ॥ भ० ॥ अरणसरण करि आरावना रे, श्री जिनसिहसूरिद देवलोकि थया देवता रे, सेव करइ सुर वृन्द ||२८|भ० ॥
[ सर्व गाथा १५१]
॥ दूहा ||
पाटि प्रभाकर ऊठीय, अतुली वल जाणे सीह । बखत बलइ पायउ तखत, राजसमुद्र श्ररणवीहु ॥ १॥