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प्रस्तुत ग्रंथ के अंत में जिनराजमूरि की विद्यमानता में ही रचित जयकीर्ति रचित जिनराजसूरिरास प्रकाशित किया गया है उसका स क्षिप्त सार इस प्रकार है-- जिनराजसरि जी का जीवन-परिचय
बीकानेर नगर में वोथरा गोत्रीय धर्म सी साह निवास करते । थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम धारलदेवी था, दम्पति सुखपूर्वक सासारिक सुख भोगते हुए रहते थे। सं० १६४७ वैसाख शुक्ला७ को धारलदेवी के शुभ लक्षणवान, सुन्दर पुत्र जन्मा' । पिता द्वारा नाना प्रकार के उत्सव किए जाकर शिशु का नाम 'खेतसी कुमार' रखा गया। वाल्यकाल में ही कुमार समस्त कलाओ का अभ्यास कर निपुरग बन गए।
एक बार बीकानेर मे खरतर-च्छाचार्य श्री जिनसिंहसूरि पधारे । उनका धर्मोपदेश सुन वैराग्य-वासित होकर कुमार ने दीक्षा लेने के लिए माता-पिता से आज्ञा मांगी। बड़ी कठिनता से अनुमति प्राप्त कर बड़े समारोह के साथ सं० १६५७ मार्गशीर्ष कृष्णा १०२ के दिन प्रव्रज्या ग्रहण की। उनका नाम राजसिंह रखा गया। तत्पश्चात् मॉडल के तप कराके छेदोपस्थापनीय चारित्र दे कर उनका नाम राजसमुद्र प्रसिद्ध किया गया।
राजसमुद्र जी की बुद्धि बडी कुशाग्र थी। अल्पकाल मे न्याय व्याकरण, तर्क, अल कार, कोष, ४५ आगम आदि पढ़कर विद्वान् हुए । तेरह वर्ष की अल्पावस्था मे चिन्तामणि तर्क-शास्त्र आगरे मे पढा!
१- रास का प्रथम पत्र न मिलने से यहा तक का उल्लेख श्रीसारकृत 'जिनराजसूरि रास' से लिया गया है।
२- श्रीसारकृत रास में स० १६५६ मि० मा० शु० १३ लिखा है। इस रास की प्रति में भी पहले यही मिति लिखकर और फिर काट कर उपयुक्त मिती दी है। अन्य प्रबंध में सं० १६५७ मि० मा० सु० १ लिखा है।
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