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लिखी गई हैं । कुछ कथा-ग्रंथ और पट्टावलियाँ भी राजस्थानी-गद्य मे प्राप्त हैं।
१७ वी शताब्दी के राजस्थानी जैन कवियो मे मालदेव, पाव चन्द्रसूरि, विनयसमुद्र, समयसुन्दर, साधुकार्ति, कनकसोम, हीरकलश, कुशललाभ, गुणविनय, सूरच'द, सहजकीति, लब्धिकल्लोल, श्रीसार आदि अनेक कवि हो गए हैं । जिनराजसूरि भी १७ वी वे उत्तरार्द्ध के उल्लेखनीय कवि हैं। इनका जन्म बीकानेर मे ही हुआ था। १६ वी शताब्दो के मस्तयोगी एवं प्रखर समालोचक सुकवि ज्ञानसार जो ने इनके लिए लिखा है 'गुजरात माँ ए कहिवंत छ अानदधन टंकसाली, जिनराजसूरि बावा तो अवध्य बचनी' अर्थात् इनके वचनों के प्रति लोगो का बहुत ही आदर भाव था । आपकी चौवीसी, वीसी के गीतों मे भक्तिरस सराबोर है । तो अन्य पदों मे नीति एवं धर्म का प्रेरणाप्रद सदेश है । प्रस्तुत ग्रंथ आपकी रचनात्रा का स ग्रह है अतः आपकी 'जीवनी और रचनाओ के सम्बन्ध मे यहां संक्षेप में प्रकाश डाला जाता है।
गुरु-परम्परा
१७ वीं शताब्दी के खरतरगच्छ के प्राचार्य जिनचंद्रसूरि जी बड़े ही शासन-प्रभाविक होने से चौथे दादासाहब के नाम से श्वेताम्बर जैन समाज में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। उन्होने सं० १६१३ में बीकानेर मे प्राकर जैन साधुप्रो के शिथिलांचार के निवारण का महान् प्रयास किया था । सं० १६४८ में सम्राट अकबर ने धर्मोपदेश सुनने के लिए इन्हे आमन्त्रित किया था और आप खंभात से विहार कर लाहोर पधारे थे । सम्राट अकबर ने इनके प्रति बहुत ही श्रद्धा प्रदर्शित की और जीव-हिंसा निवारण संबंधी फरमान जारी किए । असाढ़ सुदी ८ से चतुर्दशी तक ७ दिन