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जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि
इम जाणी नइ साधु साधवी, श्रावक श्राविका जेह जी ।
निर्मल व्रत पालइ मन सूधइ,
सिव सुख पामइ तेह जी ||३१|| सी० ||
युगप्रधान जिनचंद्र यतीसर, तासु पाट गरणधार जी । 'जिर्नास हसूरि' सीस इम पभरगइ,
'राजसमुद्र' सुविचार जी ||३२|| सी०
बत्तीसी
करम तरणी गति अलख अगोचर, कहइ कुण जागे सार जी । नारण वशे योगीसर जाणे, के जाणइ करतार जी ॥ क० ॥१॥ पूरव कर्म लिखत जे सुख दुख, जीव लहइ निरधार जी । उद्यम कोडि करइजे तो पिण,
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न फलइ अधिक लगार जी ॥ क० ॥२॥ एक जनम लगि फिरइ कुआरा, एके रे दोय नारि जो । एक उदरभर जन्मइ होइ, एक सहस आधार जी ||क० ||३|| एक रूप रंभा सम दीसइ, दोसे एक कुरूप जी ।
एक सहू ना दास कहीये, एक सहू ना भूप जी ॥ क ० ॥४॥ सायर लघवि गयो लंकाये, पवनपूत हनुमान जी । सीता खबर करी ने आव्यो, राम कछोटी दान जी ॥ क० ॥ ५॥ वेश्या घर अवतारे आवी, तनु दुर्गध अपार जी । दुर्गंधा श्रेणिक पटराणी, थाइ करम प्रकार जी ॥ क० ॥६॥ चौसठ सुरपति सेवा सारइ, महावीर भगवंत जी । नीच कुले आवी अवतरीओ, करम सबल बलवंत जी ॥ क०७ रसकुपी भरवा नइ काजे, पइठउ जोगी ताम जी ।