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जिनराज सूरि-कृति कुसुमांजलि
देह गर्न परिहार, आखिर छार है
राग - धन्यासी.
इया देही कउ गरव न कीजइ ।
देखत खलक पलक मइ पलटे, इया परि चतुर न धीजइ ॥ १ ॥ जोवन वसि दिन दसि झूठी सी, हड छवि छिन छिन छीजइ । इया मइ शुचि लव लेश न पइयइ, ज्ञान दृष्टि जव दीजइ । २ | दाही किरण हुं जलाई किण हु, आखर छारि चलीजइ । हुइ आवइ 'जिनराज' भलाई, तर करि जलू जीजइ || ३ || आत्म प्रबोध, कौन तेरा ?
राग - केदारा
तू तउ घरउ आज अयान ।
ग्रन्थ पढि पढि जनम वउरयउ, मिटयउ तउ न अज्ञान || १ || छूटि इक अपणी कमाई, सग न चलइ आन ।
तउ कहा भंडार भरह, अयन कुगति निदान ॥२॥ वांट लइत न कोउ वेदन, मिल्यो कूं यन जहान । कउन काकउ कउन तेरउ, समझि 'जिनराजान' ॥३॥ शील बत्तीसी
सोल रतन जतने करि राखउ, वरजउ विषय विकार जी || सीलवत अविचल पद पामइ, विषई रुलइ संसार जी ॥१॥ सोलवंत जगि मइ सलहीजड, सीधइ वंछित कोडि जी । सुर नर किन्नर असुर विद्याघर,
प्रणम वेकर जोड़ि जी ||२|| सी० ॥ कडुवा विषय विषम विष सरिखा, जे सेवइ नर नारि जी ।