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________________ जिनराज सूरि-कृति-कुसुमांजलि आगेवारण जरा आए थड,चिहु दिसि होइ गउ घेरउरे०॥२॥ उण वरीयां निकस चेतन तू सोचइ गउ वहु तेरउ । साचर इक 'जिनराज' पिछान्यउ, काल' पिशुन कउ हेरउ रे ॥३॥ संवल साथ में ले नहीं सका, परदेसी किसके वश ? जकड़ी गीत . उरण मीत परदेसी विना मोहि, अउर किछु न सुहाइ । विरहन की वेदना भई, सा मइ कहीय न जाउ ||१|| मेरी बहिनी प्रीतम लेहु मनाइ, प्रीति की रीति बणाइ। वांह पकरि समझाइ ॥आंकणी।। चिहु साखि मात पिता दई, ऊण की न पूछी जाति । दिन आठ दस घर मइ रह्यउ,चलत न वूझी वात ॥२॥मे०॥ 'प्रेम विलूधउ प्राणियउ, कोऊ नेह न धरइ जोइ । पीछइ पछतावइ परइ, विछुरण अइसउ होइ ॥३॥मे०।। मोहनी मोपइ किछु नही, लालन रहइ लपटाइ । अइसउ सुगरु को नां मिल्यउ, जो ल्यावई वहुराइ ॥४॥मे०॥ वे गुनही अवला तजी, प्रोउ चले काहि रिसाइ । अपराध जउ को मइ कीयउ, दीजइ सोउ वताइ ॥५॥मे०॥ इक पल संगन छोरतउ, अव बीचि दीए पहार । जा विणु घड़ी न जावती, ता विरणु जाइ जमार ॥६॥मे०॥ वेखता मुझ इतनी परी, संबल न लीघउ साथ । मनरंग 'राजसमुद्र' कहइ,परदेसी किण हाथ ॥७॥मे०॥ १ वाट वीचिंकउ डेरउ -
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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