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जिनराजसूरि-कृति - कुसुमांजत्ति
जिनराज सहित सिद्धचक्र तणी, पूजा उत्तम श्रावक करणी | तिम वांदउ देव त्रिकाल सही, आगलि शक्रस्तव पाठ कही ||३|| करतां अट्ठोत्तर सय जेती, वेला लेखइ पड़ियइ तेती | काउसग सकति सारइ कीजइ, पूरबला अमुभ करम छीजइ | ४ | आराधइ नवपद जे प्राणी, तिरण कीधी साची जिन वारणी । निद्रा विकथादिक परिहरियइ, हेलइ सिवमुख सपद वरियइ | ५ | पंचे इन्द्रिय वसि करियड, परिहरिय पच प्रमाद । समरंता परमिट्टि पय, सयल टलइ विषवाद ॥ १ ॥ क्रोधादिक चउ चउगुणिय, सोल कपाय निवारि । चउगइ दुख छेयण निउरण, नाणादिक अगि सार ॥२॥ आज काज सोधा सयल, आज भलइ सुविहाण | आज पचेलिम पुण्य भर, जीवित जनम प्रमाण ॥ ३ ॥
॥ कलश ॥
जिण सयल जिनवर सिद्धि सुखकर वाणि अमृत उवइसइ । नवपद नवे दिन चैत्र ने पिण आराहउ मन नइ रसइ ॥ तिमग् पति निधि ससिकला (१६९३) वरसइ,
आसू सुदिसत्तमी दिनइ । जिनराज' सिव सुख काज 'जिनसिंह',
सीस पभणइ सुभ मनइ ||४|| इति श्री सिद्धचक्र स्तोत्र सं १६६५ वर्षे जेसलमेरी ate दयाकीति गरिण शिष्य पण्डित गौडीदासं लिखितं सा । गुणविजया शिष्यरणी साध्वी शाहजादी पठनार्थम्
( कान्तिसागर जी संग्रह पत्र १ से )