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जिनराजसूरि-कृति कुमुमांजलि
तासु फल कम्म खय अनुक्रमइ सिव वरइ ॥१३॥ तेण जिण भवण जिणराय अतर नही। भविअ समभाव करि जोडयइ ए सही ।। भव जलहि मज्झि निवडत तारण तरी। भाव वसि दव्व पूयावि सिव सुइ करी ।।१४।। इणि परि जगगुरु 'वीर' जिणिद,सयुणियउ मइ श्री जिणचद । युगवर श्री जिनसिंहसूरि'सीस,पभणइ'राजसमुद्र'सुजगीस।१५
इति श्री वीर स्तोत्रम् श्रो जिन देव गीतम्
राग-धन्यासी लोनउरी मो मन जिन सेती लोनउ । भव मइ डोलत कवहून पायउ,
करम विवर अब दीनउरी मो०॥ अवर किछु न पिआरउ लागत, मानु मोहन कोनउ । अनिमिषि जोवत तृपति नहोवत,रोम रोम तनु भीनउरी।२मो० दरसण देखत छतिआ उलसत, रेवा ज्यु गज पोनउ । 'राजसमुद्र' साहिब सिव गामी,मो मन कनक नगीनउ रे ।३मो०
) प्रभु भजन प्रेरणा
राग -घन्यासी कवहूँ मइ नीकइ नाथ न ध्यायउ । कलियुग लहि अवतार करम वसि,अध घन घोर बढायउ।१०। बालापण नित इत उत डोलत, धरम कउ मरम न पायउ नोवन तरुणी तनु रेवा तट, मन मातंग रमायउ ॥२॥क०॥ बूढापरिण सब अग सिथल भए, लोभइ पिंड भरायउ। -