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श्री वीर जिन गीतम् । तउ भी तुम्ह करिहउ अपणाई, या 'जिनराज' बडाई ह०।३।
श्री वीर जिन गीतम्
राग-सारंग 'वीरजी' उत्तम जन की रीति न कीनी,प्रीति तत ज्युतोरी। बेग नही गोतम कहइ,किउ मोहि दूर कीयउ चित चोरी ॥१वी वीरजी जान्यउ अ चर गहिस्यइ,यातइ शिव पहुते मुझ छोरी । अ तर बहुत परथउ जिन सेती, कहा करू अब दउरी।।वी० वीरजी एक पखउ प्रेम रता नत, क्यु करि निवहइ जोरी । 'राजसमुद्र' प्रभु केवल पायउ, मोह महीपति मोरी ॥३॥वी०
श्री वीर जिन गीतम्
राग-वेलाउल. साहिब 'वीरजी' हो मेरी तनुकि अरज अवधारउ । दीनदयाल अदीन दयानिधि, कूरम नजरि निहारउ ।१।सा। करहू महर भव जलधि जहर तई,करि ग्रह पारि उतारउ । तइ ग नहीं भी तुरत निवाजे,तउ अब कहा विचारउ ।२।सा० विरुद गरीबनिबाज सुण्यउ मै, वीर जिणंद तिहारउ । 'राज' वदति निज भगत निवाजउ,परतिख होइ पत्यारउ।३सा०
श्री जिन प्रतिमा सिद्धि पीर स्तोत्रम् भविअ जण नयण वरणसंड पडिबोहग। राय सिद्धत्थ कुल तरणि सम-सोहग । थुणिसु जिण नायगौं भत्ति भर पूरिउ । पुवकय सुकय घरण रासि अकूरिउ ॥१॥ सामि सग रयणि परिमारण परिमडिअ ।