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जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि
'राजसमुद्र' गुण गावतां रे लाल
पायउ अविचल राज मन० ॥८॥मे०॥ गुणस्थान विचार गर्भित पार्षनाथ स्तवन नमिय सिरिपास जिण सुजण पडिबोहगं । कणयगिरि अचल जेसलनयर सोहर्ग ॥ चवद गणठाण उत्तर पयडि बध ए। हेतु करि सहित हू कहिसु सह संध ए॥१॥ पढम मिच्छत्त सासाण मीसाजयं । देस पमत्त अपमत्त सुह नामय ।। नियट अनियट तिम सुहम उवसतयं । खीण सहजोगि अजोगि ग ण ठाणय ।।२।। पच विह नाण आवरण दुग वेयरगी। दसनावरण नव वीस अड मोहणी॥ आउ चउ भेय तिम गेय दुग मनि वसइ । अंतरायस्स परण भेय जिण उवइसई॥३॥ च्यार गय जाइ पणु वंग तिग परण तरा। तेम संघयण सठाण छग छग भणु।। च्यारि अरगुपुचि चउवण ग रु लहु पणउ। त सग दस दुग गई दसग थावर तणउ ॥४॥ जिण पण घाइ उवधाइ निम्माण ए।
आउ वुज्जोय उसास विजांण ए॥ . , नाम कमस्स सतसठ्ठि पयडी इहा। एग सय अनइ बावीस सवि मिलि तिहां ॥५॥