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जिनराजसूरि-कृति कुसुमांजलि
भाल तिलक सिर सेहरउ, कुडल जरित जराउ ॥२॥दे०॥ मोहन मूरति साउरी, कठ कुसुम की माल । हार रच्यउ सिव नारि कु, पाच रतन कइ थाल ॥३॥दे०॥ अनिमिष नयन थकित भए, देखि सलूणी देह ।। चचल चित अटको रहयउ, इहु किछु नवल सनेह ।।४।०।। कलिजुग सुरतरु अवतरयउ, 'सहसफणउ श्री पास'। सो साहिब नितु सेवीयइं, अविचल लील विलास ॥शादे०।। दाइम भगति निवाजिकइ, दोनउ काइम राज। विरुद गरीबनिवाज कउ, साच भयउ 'जिनराज' ॥६॥०॥
श्री वाड़ी पार्षनाथ गीतम् मेलिज जमक सव गावा तरसइ, सुझ रसना गुण गावा तरसइ। नव नवलीला सरस लहीजइ,तिण प्रभु'वाड़ीपुर' सलहोज।१। अंग नवे प्रभुना चरचीजइ, आलि नव नव नाच रचीजइ । विधि खप करतां वासव रीजइ,
नितु नवलउ जस वास वरीजइ ॥२॥ जिम जोई मूरति मन भावइ, देव अवर न को मनि भावइ । सुरतरु अंगणि भविक फलीजइ,
तउ स्युसंवल नउक फलीजई ॥३॥ जीव तुरंग सिव पुरि वाहीस्यइ,सेव अवर नी करिवा हीसइ। आपणपइ जउ विस वावीसइ,लुणियइ ईष न विसवा वीसइ।४। सोझइ कारिज अवगाहीजइ, हेलइ अरिदल अगाहीजइ । मनछा अविचल राज भणीजइ,
तउ मुखि इक 'जिनराज' भणीजइ ॥५॥