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________________ (५२ ममराइचकहा। ममराइचकहा। [संक्षेपे २०७ एत्य सरौरेण कडं पाणवहासेवणए जं कर्म । तं खलु पित्तविवागं वेएर भवन्तरे जौवो ॥ म उत व मरौरं नरगाइस तम्म तह प्रभावात्रो । भिन्नकडवेयणंमि य अप्पमङ्गो बला होद ॥ एवं जौवेण कयं कूरमणपयट्टएण जं कम। तं पर रोद्दविवागं वेएर भवन्नरमरौरं ॥ न उ केवलको जौवो तेण विमुक्कम वेयणाभावें । न य मो चेव तयं खस्न लोगादविरोहभावात्रो ॥ एवं नियदेहवहे उवयारे वा वि पुलपावाई । रहरा घडाइभङ्गाइनायत्री नेव जन्जन्ति ॥ तयभिचमि' य नियमा तन्नासे तम्स पावद नामो । रहपरलोगाभावा बन्धादौणं प्रभावात्रो' ॥ देहेणं देइंमि य उवघायाग्गहाइ बन्धादौ । न पुण प्रमुत्तो मुत्तम अप्पणो कुणद किंचिदवि ॥ अकरेन्तो य न बज्मद परप्पमङ्गा मदेव भावात्रो। तन्हा भेयाभेए जौवमरौराण बधाई ॥ मोखो वि य बन्धमा तयभावे स कह कौम वा न मया। किं वा हेहि तहा कहं व मो होर पुरिमत्यो । तन्हा बहुम तम्रो बन्धो वि अणारमं पवारण । रहरा तदभावौ पुवं पिय मोकमंमिडौ ॥ " पभावोचो। A भेमि। ..। समभावोड. ३ । बसा. (DEPस
SR No.010741
Book TitleSamraicca Kaha Vol 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHermann Jacobi
PublisherAsiatic Society
Publication Year1926
Total Pages938
LanguageSanskrit, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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