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श्री समस्त सिरक्षेत्र पूजन पुण्य पाप आदिक विकार की रुचि से गोरहले भयभीत ।
पुण्य पाप के भाव जान विषतुल्य स्वयं से करते पीत ।। ज्ञान स्वभावी शीतलतामय चंदन निज में भरा अपार । . फिर भी भव दावानल मे जलजल दुख पाया बारम्बार श्री. २॥ ॐ ही श्री समस्त सिद्धक्षेत्रे यो संसारताप विनाशनाय चदन नि । ज्ञान स्वभावी उज्ज्वल अक्षत पुन्ज हदय में भरे अटूट । फिर भी अविनाशी अखंड होकर भी पा न सका निजकटाश्री. ॥३॥ ॐही श्री समस्त सिद्धक्षेत्रेभ्यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि ज्ञान स्वभावी दिव्य सुगधित पुष्पों का निज में उपवन । फिर भी भव माया मे पड निष्काम न बन पाया भगवन् । श्री. ४॥ ॐ ह्री श्री समस्त सिद्धक्षेत्रेभ्यो कामबाण विष्वसनाय पुष्पं नि । ज्ञान स्वभावी सरस मनोरम तृप्ति पूर्ण नैवेद्य स्वयम् । फिर भी क्षुधारोग से व्याकुल तृष्णा हुई न तिलभर कम ॥श्री ५|| ॐ ह्री श्री समस्त सिद्धक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि । ज्ञान स्वभावी स्वपर प्रकाशी केवलरवि निज मे अनुपम । फिर भी अघ मय अधियारे मे भटका मिटा न मिध्यातम || श्री ।।६।। ॐ ह्री श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि ज्ञान स्वभावी सहजानदी विमल धूप से हैं परिपूर्ण । फिर भी प्रभो नहीं कर पाया अब तक अष्टकर्म अरिचूर्ण ॥श्री ॥७॥ ॐ ह्री श्री समस्त सिद्धक्षेत्रेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूप नि । ज्ञान स्वभावी शिवफलधारी अविकारी हूँ सिद्ध स्वरूप । फिर भी भव अटवी मे अटका होकर मै त्रिभुवन का भूप ॥श्री ॥८॥ ॐ ह्री श्री समस्त सिद्धक्षेत्रेभ्यो महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । ज्ञान स्वभावी चिदानन्द चैतन्य अनन्त गुणो से पूर । फिर भी पद अनर्घ ना पाया रह कर निज परिणति से दूर ।।श्री ।।९।। ॐ ह्री श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रे यो अनर्यपद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला तीर्थकर ऋषि आदि मुनि गए जहाँ निर्वाण। उन क्षेत्रों को व बकर करूँ आत्म कल्याण ।।१।।