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श्री सिद्ध पूजन निश्चयनय के आश्रय से जो जीव प्रर्वतन करते हैं ।
वे ही कमों का क्षय करके भव बंधन को हरते हैं ।। कर्म मलिन हू जन्म जरा मृतु को कैसे कर पाऊँ क्षय । निर्मल आत्म ज्ञान जल दो प्रभु जन्म मृत्यु पर पाऊँजय ।। अजर, अमर, अविकल, अविकारी, अविनाशी अनत गुणधाम। नित्य निरजन भव दुख भजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥१॥ ॐ ह्री णमो सिद्धाण सिद्ध परमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि । शीतल चदन ताप मिटाता, किन्तु नहीं मिटता भव ताप । निजस्वभाव का चदन दो प्रभु मिटे राग का सब सताप। अजर ॥२॥
ही णमो सिद्धाण सिद्ध परमेष्ठिने संसारताप विनाशनाय चदन नि । उलझा हू ससार चक्र मे कैसे इससे हो उद्धार । अक्षय तन्दुल रत्नत्रय दो हो जाऊँभव सागर पार ।।अजर।।३।। ॐ ह्री णमो सिद्धाण मिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । काम व्यथा से मै घायल ह कैसे करु काम मद नाश । विमलदृष्टि दो ज्ञानपुष्प दो कामभाव हो पूर्ण विनाश।।अजर ||४|| ॐ ह्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिने कामबाणविध्वसनाय पुष्प नि । क्षुधा रोग के कारण मेरा तप्त नहीं हो पाया मन । शुद्ध भाव नैवेद्य मुझे दो सफल करूँप्रभु यह जीवन ॥अजर ॥५॥ ॐ ही णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि । मोह रूप मिथ्यात्व महातम अन्तर मे छाया घनघोर । ज्ञानद्वीप प्रज्वलित करो प्रभुप्रकटे समकितरवि का भोर ॥अजर ।।६।। ॐ ही णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । कर्म शत्रु निज सुख के पाता इनको कैसे नष्ट करूं। शुद्ध धूप दो ध्यान अग्नि मे इन्हे जला भवकष्ट हरूँ ।।अजर. ।।७।। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्म विध्वशनाय धूप नि । निज चैतन्य स्वरूप न जाना कैसे निज में आऊँगा । भेद ज्ञान फल दो हे स्वामी स्वय मोक्षफल पा ॥अजर ॥८॥ ॐ हीं णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिने महामोक्षफल प्राप्तये फल नि ।