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श्री नमिनाथ जिनपूजन भाव शुभाशुभ रहित हृदय को गहन शान्ति होती है प्राप्त ।
निर्मलता बढती जाती है हो जाता उर सुख से व्याप्त ।। ॐ ह्रीं श्री नमिनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सौष्ट, ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ही श्री नमिनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सनिहितो भव भव । निज की उज्ज्वलता का मुझे कुछ ज्ञान नही । इस जन्म मरण के रोग की पहचान नहीं ।। नमिनाथ जिनेन्द्र महान त्रिभुवन के स्वामी । दो मुझे भेद विज्ञान हे अन्तर्यामी
॥१ ॥ ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । निज की शीतलता का मुझे कुछ ध्यान नहीं । इस भव आतप के ताप की पहचान नही निमिनाथ जिनेन्द्र ॥२॥ ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेद्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि । निज की अखडता का मुझे प्रभु भान नहीं । अक्षय पद की भी तो मुझे पहचान नहीं ॥ नमिनाथ जिनेन्द्र ॥३॥ ॐ ही श्री नमिनाथ जिनेद्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि निज शील स्वभावी द्रव्य का भी ज्ञान नही । इस काम व्याधि विकराल की पहचान नही निमिनाथ जिनेन्द्र ॥४॥ ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेद्राय कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि । निज आत्मतत्व परिपूर्ण का भी ध्यान नहीं । इस क्षुधारोग दुखपूर्ण की पहचान नहीं ।। नमिनाथजिनेन्द्र ॥५॥ ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेद्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । निज ज्ञान प्रकाशक सूर्य का भी ज्ञान नही ।। मिथ्यात्व मोह के व्योम की पहचान नही निमिनाथजिनेन्द्र ।।६।।
ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । निर्दोष निरजन रूप का भी भान नहीं । यह कर्म कलक अनादि की पहचान नहीं ।। नमिनाथजिनेन्द्र ।।७।। ॐ ही श्री नमिनाथ जिनेद्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । निज अनुभव मोक्षस्वरूप का प्रभु ध्यान नहीं । निज द्रव्य अनादि अनत की पहचान नहीं ॥नमिनाथजिनेन्द्र ॥८॥ ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेंद्राय महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि ।