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श्री शान्तिनाथ जिनपूजन मैं स्वय सिद्ध परिपूर्ण द्रव्य किचित भी नही अधूरा हू । ..
चिन्मय चैतन्य धातु निर्मित मैं गुण अनत से पूरा हू ।। इस जग के उत्कृष्ट भोग भोगते बहुत जीवन बीता । एक दिवस नभ मे धन का परिवर्तनलख निजमन रीता ।।५।। यह ससार असार जानकर तपधारण का किया विचार । लौकातिक देवर्षि सुरो ने किया हर्ष से जय जयकार ।।६।। वन मे जाकर दीक्षाधारी पच मुष्टि कचलोच किया । चक्रवर्ति की अतुलसम्पदा क्षण मे त्याग विराग लिया ।।७।। मन्दिरपुर के नृप सुमित्र ने भक्तिपूर्वक दान दिया । प्रभुकर मे पय धारा दे भव सिधु सेतु निर्माण किया ॥८॥ उच्च तपस्या मे तुमने कर्मों की कर निर्जरा महान । सोलह वर्ष मौन नप करके ध्याया शुद्धातम का ध्यान ।।९।। श्रेणी क्षपक चढे स्वामी केवलज्ञानी सर्वज्ञ हुए । दिव्य ध्वनि से जीवो को उपदेश दिया विश्वज्ञ हुए।१०।। गणधर थे छत्तीस आपके चक्रायुद्ध पहले गणधर । मुख्य आर्यिका हरिषेणाथी श्रोता पशु नर सुर मुनिवर ॥११॥ कर विहार जग मे जगती के जीवो का कल्याण किया ।। उपादेय है शुद्ध आत्मा यह सदेश महान दिया ।।१२।। पाप-पुण्य शुभ-अशुभ आश्रव जग मे भ्रमण कराते हैं । जो सवर धारण करते है परम मोक्ष पद पाते हैं॥१३॥ सात तत्व की श्रद्धा करके जो भी समकित धरते है । रत्नत्रय का अवलम्बन ले मुक्ति वधू को वरते है ।।१४।। सम्मेदाचल के पावन पर्वत पर आप हए आसीन । कूट कुन्दप्रभ से अघातिया कर्मों से भी हुए विहीन ।।१५।। महामोक्ष निर्वाण प्राप्तकर गुण अनन्त से युक्त हुए । शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध सिद्ध पद पाया भव से मुक्त हुए ।।१६।। हे प्रभु शातिनाथ मगलमय मुझको भी ऐसा वर दो । शुद्ध आत्मा की प्रतीति मेरे उर मे जाग्रत कर दो ॥१७॥