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जैन पूजाजलि पाप पुण्य दोनों से वर्जित पूर्ण शुद्ध है आत्मा ।
भव्य अलौकिक पथ पर चल कर होता है सिद्धात्मा ।। हिसा, झूठ, कुशील परिग्रह, चोरी पाच पाप का त्याग । मन, वच, काया, कृत, कारित, अनुमोदन से कषाय सबत्याग।।५।। योनि, जीव, मार्गणा स्थान, कुल, भेद जान रक्षा करना । तज आरम्भ, अहिंसावत परिणाम सदा पालन करना ।।६।। राग, द्वेष, मद, मोह आदि से हो न मृषा परिणाम कभी । सदा सर्वदा सत्य महाव्रत का पालन है पूर्ण तभी ।।७।। ग्राम नगर वन आदिक ही पर वस्तुग्रहण का भाव न हो । यही तीसरा है अचौर्यव्रत परपदार्थ मे राग न हो ॥८॥ देख रुप रमणी का उसके प्रति वाछा का भाव न हो । मैथुन सज्ञा रहित शुद्धवत ब्रह्मचर्य का पालन हो ।।९।। पर पदार्थ परद्रव्यो मे मूर्छा ममत्व न किचित हो । त्याग, भेद चौबीस परिग्रह के अपरिग्रह शुभ व्रत हो ।।१०।। पचमहावत दोष रहिन अतिचार रहित हो अतिशुचिमय। पूर्ण देश पालन करना आसन्न भव्य को मगलमय ।।११।। ईर्या भाषा समिति एषणा अरु आदान निक्षेषण जान । प्रतिष्ठापना समिति पाच का पालन करते माधुमहान।।१२।। केवल दिन मे चार हाथ लख प्रासुक पथपर जो जाता । त्रस थावर प्राणी रक्षाकर ईर्या समिति पाल पाता ।।१३।। परनिन्दा, पेशून्य, हास्य, कर्कश, भाषा, स्वप्रशसा तज। हितमितप्रियही वचनबोलना भाषासमिति स्वय को भज ।।१४।। सयम हित नवकोटि रूप से प्रासुक शुद्ध भोजन करना । यही एषणा समिति कहाती विधि पूर्वक आहार करना ।।१५।। शास्त्र कमडुल पीछी आदिक सयम के उपकरण सभी । यत्ना पूर्वक रखना है आदान निक्षेपण समिति सभी ।।१६।। पर उपरोध जतु विरहित प्रासुक भूपर मल को त्यागे । प्रतिष्ठापना समिति सहज हो जागरुक निज में जागे ।।१७।।