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जैन पूजांजलि जो बीत गई सो बीत गई जो शेष रही उसको सभाल ।
भव भाग देह से हो उदास पाले सम्यक्तत् परम विशाल । । पुष्पो की सुरभि सुहाई प्रभु पर निज की सुरभि नहीं भाई । कदर्प दर्प की चिरपीडा अबतक न शमन प्रभु हो पाई ॥त्रिभु ॥४॥ ॐ ही श्री वासुपूज्यदेव जिनेद्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्प नि । षट् रस मय विविध विविध व्यजन जी भर-भर कर मैंनेखाये । पर भूख तृप्त न हो पाई दुख क्षुधा रोग के नित पाये । त्रिभु ।।५।। ॐ ह्री श्री वासुपूज्य जिनेद्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । दीपक नित ही प्रज्जवलित किये अन्तरतम अबतक मिटानहीं । मोहान्धकार भी गया नही अज्ञान तिमिर भी हटा नहीं । त्रिभु ।।६।। ॐ ह्री श्री वासुपूज्य जिनेद्राय मोहाधकार विनाशनाय दीप नि । शुभ अशुभ कर्म बन्धन भाया सवर का तत्त्व कभी न मिला । निर्जरित कर्म कैसे हो जब दुखमय आश्रव का द्वारखुला ।।त्रिभु ।।७।। ॐ ह्री श्री वासुपूज्य जिनेद्राय अष्टकर्म विश्वसनाय धूप नि । भौतिक सुख की इच्छाओ का मैने अब तक सम्मान किया । निर्वाण मुक्ति फलपाने को मैने न कभी निज ध्यानकिया ।त्रिभु ।।८।। ॐ ह्री श्री वासुपूज्य जिनेंद्राय महामोक्षफल प्राप्ताय फल नि ।। जब तक अनर्घ पद मिले नही तब तक मै अर्घ चढा । निजपद मिलते ही हे स्वामी फिर कभी नही मै आआ त्रिभु ॥९॥ ॐ ही श्री वासुपूज्य जिनेद्राय अनर्धपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंचकल्याणक त्यागा महा शुक्र का वैभव, मॉ विजया उर मे आये । शुभ अषाढ कृष्ण षष्ठी को देवो ने मगल गाये ।। चम्पापुर नगरी की कर रचना, नव बारह योजन विस्तृत । वासुपूज्य के गर्भोत्सव पर हुए नगरवासी हर्षित ।।१।। ॐ ही श्री अषाढकृष्णषष्ठया गर्भमगलप्राप्ताय श्रीवासुपूज्य जिनेद्राय अर्घ्य नि । फागुन कृष्णा चतुर्दशी को नाथ आपने जन्म लिया । नृप वसुपूज्य पिता हर्षाये भरत क्षेत्र को धन्य किया ।