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श्री नित्य नियम पूजन निज परिणति को किया बहिष्कृत तूने अपनी भूल से ।
पर परिणति से राग कर रहा खेल रहा है धूल से । । बन्ध हेतु मिथ्यात्व असयम और प्रमाद कषाय त्रियोग। समकित का अयं सजा अन्तर मे पाऊँपद अनर्घ अवियोग ।।देव ।।९।। ॐ ही श्री सीजनचरणाग्रेषु अनर्थ्य पद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला जिनवर पद पूजन करूँनित्य नियम से नाथ ।
शुद्धातम से प्रीत कर मै भी बन सनाथ ॥१॥ तीन लोक के सारे प्राणी हैं कषाय आतप से तप्त ।। इन्द्रिय विषय रोग से मूर्छित भव सागर दुख से सतप्त ।।२।। इष्ट वियोग अनिष्ट योग से खेद खिन्न जग के प्राणी । उनको है सम्यक्त्व परम हितकारी औषधि सुखदानी ॥३॥ सर्व दुखो की परमौषधि पीते ही होता रोग विनष्ट । भवनाशक जिन धर्म शरण पाते ही मिट जाना भवकष्ट।।४।। है मिथ्यात्व असयम और कषाय पाप की क्रिया विचित्र । पाप क्रियाओ से निवृत्त हो तो होता सम्यक्चारित्र ॥५॥ घाति कर्म बन्धन करने वाली शुभ अशुभ क्रिया सब पाप । महा पाप मिथ्यात्व सदा ही देता है भव भव सताप । इसके नष्ट हुए बिन होता दर असयम कभी नहीं । इसके सम दुखकारी जग मे और पाप है कहीं नहीं ॥७॥ मुनिव्रत धारण कर ग्रैवेयक मे अहमिन्द्र हुआ बहुबार। सम्यकदर्शन बिन भटका प्रभु पाए जग मे दुक्ख अपार ।।८।। क्रोधादिक कषाय अनुरजित हो भवसागर मे डूबा । साता के चक्कर में पड़कर नहीं असाता से ऊबा ।।९।। पाप पुण्य दुखमयी जानकर यदि मैं शुद्ध दृष्टि होता । नष्ट विभाव भाव कर लेता यदि में द्रव्य दृष्टि होता ॥१०॥ मिथ्यातम के गए बिना प्रभु नहीं असयम जाता है । जप तप व्रत पूजन अर्चन से जिय सम्यक्त्व न पाता है ॥११॥
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