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________________ २०३ श्री पुष्पदन्त जिनपूजन समकित रूपी जलप्रवाह अब बहता है मध्यतर में । कर्मधुल आवरण नहीं रहता है लेश मात्र उर में ।। सिद्धवधू से परिणयकरके प्राप्त किया सिझे का धाम । नित्य निरन्जन भवभय भंजन भाव पूर्वक तुम्हें प्रणाम ।। ॐ हीं श्री पुष्पदंत जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सोफ्ट, हामी पुष्पदंत जिनेंद्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, होश्री पुष्पदंत जिनेंद्रअनमम सनिहितो भव भव वषट् । निज स्वभावमय सलिल नीर की धारा अन्तर में लाऊँ। जन्म जरा अघ दोषनाशकर अविनश्वर पद को पाऊँ।। परम ध्यानरत पुष्पदंत प्रभुसी पवित्रता उर लाऊँ। चिदानन्द चैतन्य शुद्ध परिपूर्ण ज्ञान रवि प्रगटाऊँ ॥१॥ ॐ ही श्री पुष्पदत जिनेंद्रायजन्मजरामृत्यु विनाशनायजल नि । निज स्वभावमय शीतलचदन निज अतस्तल मे लाऊँ। भव आताप दोष को हरकर अविनश्वर पद को पाऊँपिरम ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री पुष्पदत जिनेन्द्राय कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि जिन स्वभावमय अक्षय तदुल निज अभेद उर में लाऊँ। अमल अखड अतुल अविकारी अविनश्वर पद को पाऊँगापरम ॥३॥ ॐ ह्री श्री पुष्पदत जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षत नि । निजस्वभाव मय पुष्प सुवासित निज अन्तर मन मे लाऊँ। काम कलक कालिमा हरकर अविनश्वर पद को पाऊँ ।परम ।।४।। ॐ ह्रीं श्री पुष्पदत जिनेंद्राय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि निज स्वभावमय सवर के चरु निज गागर में भर लाऊँ। पुण्य फलों की भूख नाशकर अविनश्वर पद को पाऊँपरम ।।५।। ॐ ह्रीं श्री पुष्पदत जिनेंद्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । निज स्वभावमय ज्ञानदीप प्रज्ज्वलित करूँ उर में लाऊँ। मोह तिमिर अज्ञान नाशकर अविनश्वर पद को पाऊँ परम ॥६॥ ॐही श्री पुष्पदंत जिनेंद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि । निज स्वभावमय धूप निर्जरातपमय अन्तर मे लाऊँ। अरिरज हस विहीन बनूं मै अविनश्वर पद को पाऊँ ।परम ॥७॥ ही पुष्पदंत जितेंद्राय अष्टकर्म विश्वसनाव पूपं नि. ।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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