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श्री साप जिनयूजन मोक्ष मार्ग पर चले निरंतर जग में समाप्रमण वही है ।
ज्ञानवान है ध्यानवान है निज स्वस्म अतिक्रमण नहीं है ।। पचम परम परिणामिक से पंचमगति शिवमय पाऊँ। , द्रव्य कर्म अरु भाव कर्म से हो विमुक्त निजगुण गाऊँ ५॥ सुमतिनाथ पंचम तीर्थकर के पद पंकज नित ध्याऊँ। पंच परावर्तन अभावकर सुखमय सिद्ध स्वगति पाऊँ ।२६॥ ही श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाय नि ।
चकवा शोभित प्रभु चरण सुमतिनाथ उर धार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ।।
इत्याशीर्वादः
जाप्यमत्र" ॐ ह्री श्री सुपतिनाथ जिनेन्द्राय नमः
श्री पद्मप्रभ जिनपूजन जय जय पद्य जिनेश पद्मप्रभ पावन पाकर परमेश । वीतराग सर्वज्ञ हितकर पानाथ प्रभु पूज्य महेश ।। भवदुख हर्ता मगलकर्ता षष्टम तीर्थकर पड़ोश । हरो अमगल प्रभु अनादि का पूजन का है यह उद्देश्य ।। ॐ ह्रीं श्री पाभ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सोषट्, ॐ ह्रीं श्री पराजप्रभजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ह्री श्री पचप्रभजिनेन्द्र अत्र मम सनिहितो प्रव-भव वषट् । शुद्ध भाव का धवलनीर लेकर जिन चरणों मे आऊँ। जन्म मरण की व्याधि मिटाऊँ नार्चे गाऊँ हर्षाऊँ।। परम पूज्य पावन परमेश्वर पदमनाथ प्रभु को ध्याऊँ। रोग शोक सताप क्लेश हर मगलमय शिवपद पाऊँ ॥१॥ ॐहीं श्री पाम जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि शुद्ध भाव का शीतल चदन ले प्रभु चरणों मे आऊँ। भव आताप व्याधि को नाशें नाचूँ गाऊँ हर्षाऊँ परम पूज्य ।।२।। *ही श्री प्रभ जिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दन नि ।