________________
१७९
-
श्री सम्भवनाथ जिन पूजन शुदभाव ही मोक्ष मार्ग है इससे चलित नहीं होना ।
खलित हुए तो मुक्ति न होगी होगा कर्मचार होना ।। कर्मबध के ये सब कारण इनको करूं शीघ्र विध्वेस । परम मोक्ष की प्राप्ति करूँ शाश्वत सुख पाए चेतन हस ।१९।। विनय भाव से भक्ति पूर्वक मैंने प्रभु की की है पूजन । जब तक शुद्ध स्वरूप न पाऊँ रहें आपकी चरणशरण ।२०।। ॐही श्री अजितनाथ जिनेंद्राय पूर्णाय नि. स्वाहा ।
गजलक्षण युत अजित पद भाव सहित उरधार । मनवचतन जो पूजते वे होते भव पार ॥२१॥
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ हीं श्री अजितनाथ जिनेंद्राय नम
श्री सम्भवनाथ जिन पूजन वर्तमान हुडावसर्पिणी कर्मभूमि शुभ चौथा काल । हतिय तीर्थकर श्री सभवनाथ सुसेना मां के लाल।। मगधदेश श्रावस्ती नगरी के राजा जितारिनन्दन । मति श्रुत अवधि ज्ञान के धारी जन्मे स्वामी सभवजिन ॥ निज पुरुषार्थ स्वबल के द्वारा तुमने पाया केवलज्ञान । चारघातिया की सैतालीस प्रकृतियो का करके अवसान ।। चऊँ अघाति की सोलह कर प्रकृति नाशी अरहन्त हुए ।
सठ कर्म प्रकृतियाँ छयकर वीतराग भगवन्त हुए।। ॐही श्री सभवनाथजिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सौषट, श्री समवनाधजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, श्री सभवनाथजिनेन्द्र अव मम् सनिहितो भक-भव वषट् । स्वानुभूति वैभव का निर्मल सलिल सातिशय जल भरलूँ । निज स्वभाव की निर्मलता से मैं शुद्धत्व प्राप्त करतूं ॥ संभव जिनका संभवतः निज अन्तर में दर्शन करलें । तो भव भय हर कर हे स्वामी मुक्ति लक्ष्मी को वरलूँ ॥ ॐ हौं भी संभवनायजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं नि । स्वानुभूति वैभव का शीतल चंदन मैं चर्चित करा । निज स्वभाव की शीतलता से मैं सिद्धत्व प्राप्त करनू सिंभव.।।।।