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५ वस्वभाव की रुचि अब जागी, छोड़ी मन मानी । निज परिणित की अनुपम छवि, अब मैंने पहचानी ॥सुनी. ।।२।।
अब प्रभु चरण छोड़ कित जाऊँ ऐसी निर्मल बुद्धि प्रभु दो शुद्धातम को ध्याऊँ ।।अब. ।।१।। सुर नर पशु नारक दुख भोगे कब तक तुम्हें सुनाऊँ । बैरी मोह पहा दुख देवे कैसे याहि भगाऊं अब।।१।। सम्यक दर्शन की निधि दे दो तो भव भ्रमण पिटाऊँ। सिद्ध स्वपद की प्राप्ति करूं मै परम शान्त रस पाऊँ ।अब ।।२।। भेद ज्ञान का वेभव पाऊँ निज के ही गुण गाऊँ। तुव प्रसाद से वीताराग प्रभु भव सागर तर जाऊँ ।।अब ।।३।।
___ मैं तो परमात्म स्वरूपी हूँ। मैं तो परमात्म स्वरूपी हूँ। मै तो शुद्धात्म स्वरूपी हूँ। मै इन्द्रिय विषय कषाय रहित, पुदगल से भिन्न अरूपी हूँ ।।१।। मै पुण्य पाप रज से विहीन,पर से निरपेक्ष अनूपी हूँ। मै निष्क्ल क निर्दोष अटल, निर्मल अनत गुणभूपी हूँ ।।२।। मै परम पारिणामिक स्वभावमय केवल ज्ञान स्वरूपी हूँ।
मैं तो परमात्म स्वरूपी हूँ ।।३।।
अब तो ऋषभनाथ लौ लागी वीतराग मुद्रा दर्शन कर ज्ञानज्योति उर जागी । अब ज्ञानानदी शुद्ध स्वभावी निज परिणति अनुरागी । भव भोगन से ममता त्यागी भये नाथ बैरागी । अब ।।१।। अष्टापद कैलाश शिखर से कर्म धूल सब त्यागी । अनुपम मुख निर्वाण प्राप्ति से भव बाधा सब भागी । अब ॥२।। मेरो रोग मिटा दो स्वामी मैं अनादि को रागी । वीतरागता जागे उर मे बन जाऊँ बड़ भागी ।।अब ।।३।।