________________
१४२
-
-
जैन पूजाँजलि
भावना भवनाशिनी ।
मोह प्रम अज्ञान वश यह आत्मा भव वासिनी । । कुण्डलपुर वैशाली नृप सिद्धार्थराज गृह जन्म लिया । माता त्रिशला धन्य हो गई वर्धमान रवि उदय हुआ । इन्द्रादिक ने मगल गाये गिरि सुमेरु पर कर नर्तन । एक सहस्त्र आठ कलशों से क्षीरोदधि से किया न्हवन ॥ तीन लोक मे आनन्द छाया घर-घर मगलाचार हुआ । दशो दिशाये हुई सुगन्धित प्रभु का जय जयकार हुआ ।। दुखी जगत के जीवो का प्रभु के द्वारा उपकार हुआ । निज स्वभाव जप मोक्ष गये प्रभु सिद्ध स्वपद साकार हआ ॥ मैं भी प्रभु के जन्म महोत्सव पर पुलकित हो गुण गाऊँ। अष्ट द्रव्य से प्रभु चरणो की पूजन करके हर्षाऊँ ।। ॐ ह्री चैत्र शक्ल त्रयोदश्या जन्ममगलप्राप्त श्री महावीर जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सवौषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् । क्षीरोदधि का क्षीर वर्ण सम भाव नीर लेकर आऊँ। प्रभु चरणो मे भेट चढाऊँपरम शात जीवन पाऊँ।। महावीर के जन्म दिवस पर महावीर प्रभु को ध्याऊँ। महावीर के पथ पर चल कर महावीर सम बन जाऊँ ॥१॥ ॐ ह्री चैत्र शुक्ल त्रयोदश्यो जन्ममगलप्राप्त श्री महावीर जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । मलयागिरि चन्दन से उत्तम गध स्वय की प्रगटाऊँ। निज स्वभाव साधन से स्वामी शाश्वत शीतलता पाऊँ ।। महा ॥२॥ ॐ ह्री श्री चैत्र शुक्ल त्रयोदश्या जन्ममगलप्राप्त श्रीमहावीर जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चन्दन नि । शुभ्र अखण्डित धवलाक्षत ले भावसहित प्रभु गुणगाऊँ । निज स्वरुप की महिमा गाऊअनुपम अक्षय पद पाऊँ । महा ॥३॥ ॐ ह्री श्री चैत्र शुक्ल त्रयोदश्या जन्ममगलप्राप्त श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्त ये अक्षत नि स्वाहा। कल्पवृक्ष के पुष्प मनोहर भावमयी लेकर आऊँ। पर परणति से विमुख बनू निष्काम नाथ मैं बन जाऊँ ॥ महा ॥४॥