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________________ १३८ जैन पूजांजलि अन्तर्जल्पों में जो उलझा निज पद न प्राप्त कर पाता है । सकल्प विकल्प रहित चेतन निज सिद्ध स्वपद पा जाता है ।। मेरी केवल एक विनय है मोक्ष लक्ष्मी मुझे मिले । भौतिक लक्ष्मी के चक्कर में मेरी श्रद्धा नहीं हिले २८॥ भव भव जन्म मरण के चक्कर मैंने पाये हैं इतने । जितने रजकण इस भूतल पर, पाये हैं प्रभु दुख उतने ॥१९॥ अवसर आज अपूर्व मिला है शरण आपकी पाई है। भेद ज्ञान की बात सुनी है तो निज की सुधि आई है ॥२०॥ अब मैं कहीं नहीं जाऊँगा जब तक मोक्ष नहीं पाऊँ। दो आशीर्वाद हे स्वामी नित्य मगल गाउँ ॥२१॥ ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्या निर्वाण कल्याणक प्राप्ताय श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अयं नि दीपमालिका पर्व पर महावीर उर धार । भार सहित जो पूजते पाते सोख्य अपार ।। इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ही श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नम । श्री ऋषभजयन्ती पूजन जम्बूद्वीप सुभरत क्षेत्र मे है उत्तरप्रदेश शुभ नाम । सरयूतट पर नगर अयोध्या प्रभु की जन्मभूमि अभिराम ।। कर्मभूमि के प्रथम जिनेश्वर आदिनाथ मगलदाता । जो भी शरण आपकी आता सम्यकदर्शन प्रगटाता ।। वर्तमान चौबीसी के तीर्थकर आदीश्वर भगवान । विनयसहित पूजनकरता हें निजस्वभाव को लूँ पहचान ।। ऋषभदेव के जन्मदिवस पर वृषभनाथ प्रभु को ध्याऊँ । आदिब्रहा वृषभेश्वर जिनप्रभु महादेव के गुण गाऊँ। ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सवौषट् अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठ ठ, अत्र मम सनिहितो भव-भव वषट् । शुद्धनीर प्रभु चरण चढाऊ जन्म जरादिक विनशाऊँ। वीतराग विज्ञान ज्ञानधन निजस्वभाव में आ जाऊँ ऋषभ ।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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