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श्री समयसार पूजन जब निज स्वभाव परिणित की धारा अबत्र बहती है।
अन्तर्मन में सिदों की पावन गरिमा रहती है ।। धव तरु के विषय फल खाकर करता आया भाव परण । सिद्ध स्वपद की चाहजगी तो यह पर्याय हुई धन धन । समय ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री परमागमसमयसाराम महा मोक्षफल प्राप्तये फलं नि । आश्रव बघभाव का कारण मिटा राग का एक न कण । द्रव्य दृष्टि बनते ही पाया निज अनर्ष पद का दर्शन । समय. ॥९॥ ॐ ही श्री परमागमसमयसाराय अनर्षपद प्राप्तये अभ्य नि स्वाहा ।
जयमाला समयसार के ग्रन्थ की महिमा अगम अपार ।
निश्चय नय भूतार्थ है अभूतार्थ व्यवहार ॥१॥ दुर्नय तिमिर निवारण कारण समयसार को करुं प्रणाम । हू अबद्धस्पृष्ट नियत अविशेष अनन्य मुक्ति का धाम ॥२॥ सप्त तत्त्व अझै नव पदार्थ का इसमे सुन्दर वर्णन है । जो भूतार्थ आश्रय लेता पाता सम्यकदर्शन है ॥३॥ जीव अजीव अधिकार प्रथम मे भेदज्ञान की ज्योति प्रधान । १“जो पस्सदि अप्पाण णियदं", हो जाता सर्वज्ञ महान ॥४॥ कर्ता कर्म अधिकार समझकर कर्ता बुद्धि विनाश करूँ। २“सम्पदसण णाण एसो' निज शुद्धात्म प्रकाश करूँ ।।५।। पुण्य पाप अधिकार जान दोनो मे भेद नहीं मान । ये विभाव परिणति से हैं उत्पन्न बधमय ही जानू ।।६।। ३"रत्तो बधदि कम्म', जानू उर विराग ले कर्म हरूँ। राग शुभाशुभ का निषेध कर निज स्वरूप को प्राप्त करूँ ॥७॥ मैं आश्रव अधिकार जानकर राग द्वष अरु मोह हरु। भिन्न द्रव्य आश्रव से होकर भावाश्रव को नष्ट करूँ ॥८॥ (१) ससा १५ अपनी आत्मा को. नियत दखता है, (२) ससा १४ दर्शन शान ऐसी संज्ञा मिलती है. (३) समयसार १५०-रागी जीव कर्म बांधता है.