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जैन पूजाँजलि जब तक निज पर भेद न जाना तब तक ही अज्ञानी ।
जिस क्षण निज पर भेद जान ले उस क्षण ही तू ज्ञानी ।। खिरने लगी दिव्य ध्वनि प्रभु की परमहर्ष उर मे छाया । कर्म नाशकर मोक्ष प्राप्ति का यह अपूर्व अवसर पाया ॥१६॥
ओ कार ध्वनि मेघ गर्जना सम होती है गुणशाली । द्वादशाग वाणी तुमने अन्तर्मुहर्त में रच डाली ॥१७॥ दोनो भ्राता शिष्य पाच सौ ने मिथ्यात्व तभी हरकर ।। हर्षित हो जिन दीक्षा ले ली दोनों भात हुए गणधर ॥१८॥ राजगृही के विपुलाचल पर प्रथम देशना मगलमय । महावीर सन्देश विश्व ने सुना शाश्वत शिव सुखमय ॥१९॥ इन्द्रभूति, श्री अग्निभूति, श्री वायुभूति, शुचिदत्त महान । श्री सुधर्म, मान्डव्य, मौर्यसुत, श्री अकम्प अति ही विद्वान ।।२०।। अचल और मेदार्य, प्रभास यही ग्यारह गणधर गुणवान । महावीर के प्रथम शिष्य तुम हुए मुख्य गणधर भगवान् ॥२१॥ छह छह घडी दिव्यध्वनिखिरती चारसमय नितमगलमय । वस्तु तत्त्व उपदेश प्राप्तकर भव्य जीव होते निजमय ॥२२।। तीस वर्ष रह समवशरण मे गूथा श्री जिनवाणी को । देश देश मे कर विहार फैलाया श्री जिनवाणी को ।।२३।। कार्तिक कृष्ण अमावस प्रात महावीर निर्वाण हुआ । सन्ध्याकाल तुम्हे भी पावापुर मे केवलज्ञान हुआ ॥२४॥ ज्ञान लक्ष्मी तुमने पाई और वीरप्रभु ने निर्वाण । दीपमालिका पर्व विश्व मे तभी हुआ प्रारम्भ महान् ॥२५॥ आयु पूर्ण जब हुई आपको योग नाश निर्वाण लिया । धन्य हो गया क्षेत्र गुणावा देवो ने जयगान किया ॥२६।। आज तुम्हारे चरण कमल के दर्शन पाकर हर्षाया । रोम-रोम पुलकित है मेरे भव का अन्त निकट आया ॥२७॥ मुझको भी प्रज्ञा छैनी दो मै निज पर मे भेद करूँ। भेद ज्ञान की महाशक्ति से दुखदायी भव खेद हरूँ ॥२८॥