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(८१) अपनी जबरदस्तीसे लग जाती है ? प्रथम पक्षको तो आप स्वीकारही नहीं सक्ते क्योंकि उसमक्त बगैर मनके उस जात्मा में इच्छा नहीं होती अगर दुसरे पक्षको मानोगे तो पूर्वावस्थामें भी उस निर्मलात्मारो प्रकृतिका लग जाना मानना पडेगा फिरतो मोक्षावस्थामें आप आत्मारा बन्धन होना नहीं मानते हो, आपसा यह सिद्धान्त कायम नहीं रहेगा। देखिये, कैसा घ्याघ्रतटिनी न्याय समुपस्थित हुआ है ? अवतो इस पन्धनसे निकल नाही मुश्कील होगया। अगर जिनेद्रके वचनाको स्वीकार करते तो ऐसा हाल क्यों ? होता। शायद सारख्योगी इस जापत्को देसकरही दयानदजीने एक रास्ता सुला रस दिया होगा। मिय मित्रो । नवतच जानने वालो ! आप 1. सूरी समझ गये हागेकि इनके माने हुए पचीसके पचीसटि तचाभास है । इत्यलफिमधिकेन इति सारय ।।
मिय सज्जनो ! अब जमिनिके मन्तव्योंको दृष्टी गोचर करते है तो इनॉमी सत्र मतोंके मन्तव्यसे अधिक तरगिरी हुइ हालत मालुम होती है । क्योंकि ये लोक हिंसामें धर्म मानते हैं । मातला जर दीगर लोग " आईसा परमो धर्म " इस परको याद कर ससारी मामले में किचिन हिसाये सेवन करने वालेभी धामिर मामलेमें हिसाशे वाजुपर रखकर निरवय काम करते है। तब इधर वेदोक्त विधिपर चरने वाले जैमिनीय लोक यज्ञानिके बहार