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अर्थ- न तो मुझे वीर परमाला से पक्षपात है और न कपिलादिकों द्वेष हैं किंतु जिसके वचन युक्ति करके सिद्ध हो जावें सौही ग्राह्य हैं.
श्री हेमचन्द्रसूरिने वीरस्तुतिमें फरमाया है कि:श्लोक, नश्रद्धयैवत्व विपक्षपातो, नवमात्रादरुचिः परेषु । यथावदाप्ततत्वपरीक्षायातु, त्वामेववीरप्रभुमाश्रिताः स्मः॥
अर्थ - केवल श्रद्धा मात्र कहके तुझपर पक्षपात तथा द्वेष मात्र करके अन्य देवोंपर अरुचि नहीं है किंतु यथार्थ और आप्त वचनकी परीक्षा करके हे वीरन ! हमने आपही का आश्रय लिया है.
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तो निश्चय हो गया के हमें किसीसे पक्षपात नहीं है, हे श्रोतागणों ! वे परमात्मा न अपने भक्तोपर खुरु होते हैं और न लिंकों पर नाराज होते हैं वल्के केवल मात्र सम परिणाम रहकर सर्व जीवोंपर सहरा उपकार करते हैं.
यज्ञ - सूरिश्वरजी ! जब कि आपके प्रभु कुछभी नही कर सक्के तो उनको भजनाभी तो निरर्थक है.
सूरि - हे यज्ञदत्तजी ! करना कराना यह राग द्वेषके तालुक है सो हम तो पहेले ही कह चुके कि सर्वज्ञ परमात्मा