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( २७७ ) क्यों नहीं करना, और दु ख टालनेके लिये परमेश्वरकी भक्तिही क्यो करना चाहिये ' हा यह सत्य है कि इन बातोंसे अपनेको एक प्रकारका कुछ सुखसा मालुम होता है, परन्तु वह बहुतही थोडी देरतक रहने वाला अर्थात् क्षणिक है। अपनेको भोजन तीतक अच्छा लगता है जबतक कि अपनी भूस तृप्त न हो। वही भोजन जो अधिर हो जाय तो विप सरीखा उगता है। यदि भोजनमें मुख हो तो जैसे २ वह ज्यादा अभ्यास कियाजाय पैसे • अधिक • मुख होते जाना चाहिय । बीमारीकी दशामें किसीकी मृत्यु हो जाय उस समय या ऐसेही औरभी किसी प्रसगपर सान पान घर वार अपने पिराने कोइ नहीं भाते है यदि ये मुसके टेने वाले हाँ तो सभी समय इनसे इस प्रकार मुख मिलना चाहिये, जैसे अपन अग्निकों चाहे दु स्वमें मुखमें, सोते वा जागते, फिसो समयमें भी अपने हायसे स्पर्श करें तो अपन दाने विना नहीं रहते हैं, क्यों कि अग्निमें उप्णता सर घडी रहती है। यदि विषयों अन्दर प्रख हो तो जर कभी उनका सेवन किया जाय उसी समय उनसे मुखकी प्राप्ति हो सकती है, परन्तु जब ऐसा नहीं हो तो यही कहना पडता है कि पिय नुखदायर नही होते हैं। इसी लिये जिनको इच्छा दुग्य टारकी अर्यात सुख प्राप्त करने की हो उन्हें उचित है कि उस अखड मुग्यके देने वालेसे ही ठीक सम्बर रगसें