SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २७४) रैकहो वा राजा, छोटाहो वा बड़ा सभीसुख मिलानेका प्रयत्न करते हुए दीख पड़ते है. क्यो कि सव कोइ किसी अंशमें दुःखी अवश्य हैं । इसी प्रकार छोटी उमरसेही लोग भांति २ का ज्ञान प्राप्त करनेका प्रयत्न करते हैं । वे एक विद्याका अभ्यास करके दूसरी विद्याका अभ्यास करते हैं । उसेभी जव पढ़ चुकते हैं तो तीसरीका औरभी पढना वाकी रहजाता है। जिन्होंने कई प्रकारकी विद्याएं सीखी हैं उन्हेभी इतनी विद्या औरभी पहनी शेप रहजाती है जिसका कि कुछ अन्त नहीं आ सकता है । अपन जिसको महान् विद्वान मानते हैं उन्हें जब पुंछते हैं तो वेभी यही कहते हैं कि अभी हमने 'विद्याका कुछभी पार नहीं पाया है. इन सब बातोंसे यही सिद्ध होता है कि मनुष्यों को पुर्ण ज्ञान नहीं होता है । जबतक सम्पुर्ण ज्ञानकी प्राप्ति न हो जाय तबतक ज्ञानसे तृप्ति नहीं होती अर्थात् नया २ जाननेकी इच्छा बनी रहती है। ___संसारमें जितने मात्र जीव है वे अशुद्ध यलीन है. मलीनता सवको अप्रिय है, सभी शुद्धता चाहते हैं, ऐसा कोईभी मनुष्य नहीं. जो कि अशुद्ध रहकर संसारिक जन्म मरणका दुःख भोगना पसन्द करे. इन सब बातोंका सारांश यही है कि मनुष्य मात्र सम्पुर्ण रीतिसे स्वतंत्र, सम्पुर्ण रीतिसे सुखी, सम्पुर्ण रीनिसे ज्ञानी और शुद्ध होनेकी इच्छा करते हैं और जबतक
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy