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( २६२) भक्ति ही है, जिस प्रकार देखनेके लिये नेत्रोंकी और चलने के लिये पांवोंकी आवश्यकता है उसी प्रकार यथार्थ सुख और ज्ञानकी किसी अंशमेंभी प्राप्ति करनेके लिये परमेश्वर की भक्ति करना अवश्य है । इन्हीं कारणोंसे सर्वोत्कृष्ट सुखके अभिलापी जनको, तथा उत्तमोत्तम जानकी आकांक्षा करने वाले पुरुषको अपनी इच्छाकी सफलताके लिये ईश्वरकी भक्ति करना ही एक मात्र उत्तम उपाय है ।
कितनेक लोग कहते हैं कि ईश्वर हो तो उसके स्मरण करनेकी लंबी चोड़ी बातेंभी कामकी हैं; परन्तु ईश्वरके होने विश्वास क्यों कर कियाजाय ! जब कि वृक्षका मूल ही नहीं तो फिर उसको डालियोंकी बातोसे क्या प्रयोजन ! विना आंखोंसे देखे, कैसे जाना जाय कि ईश्वर है ? यदि कोई इश्वरको प्रत्यक्ष वतादे तो हम माने और भक्ति करें. उन लोगोकी ये शंकाये एक प्रकारसे ठीक है। हम अपनी शक्तिके अनुसार प्रथम इनका ठीक समाधान करके यह बतलायेंगे कि केवल ईश्वरका होना ही मानना योग्य नही, बस उसकी भक्ति करनाभी मनुष्योंका परम कर्तव्य है ।
ईश्वर अपनी नजरसे दिखाई नहीं देता है इस लिये वह है नहीं । यह शंका उसी प्रकार होगी जैसे कोई कहे कि अपने शरीरमें जीवात्मा (चैतन्य शक्ति) अपनी नजरसे