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________________ ( २०९) करके ३६-२५-२७ गुण होते है वही सद्गुरु होते हैं. इनाक पुनः समालोचनाकी आवश्यक्ता नहीं. वाचकटद । ऊपर घतलाये हुने २७ गुणसे मालूम कर चुके होग कि "जैन " शास्त्रोफे कैसा पवित्र उदेश र नियम है ? यह तो सरको विदित है कि विना परिश्रम किये कोई वस्तुभी नहिं प्रास होती, केवल ईश्वर पर आवार रखने वाले वे स्वयम् परीक्षा कर सक्ते हे कि जर ईश्वर उनकी रक्षा करने वाला है तो उनको अपने हाथ पैरभी नहि हिलाने चाहिए-नहि, नहि, पाठकगण ! यह किसी जनभिज्ञका पताया हुआ मार्ग है और उसमो वेदी रोग मानते है जो निरे आलसी है और जगानका पर्दा जिनकि उद्धिके सामने लटका हुवा है आप इस छोटेसे दृष्टान्तसे समझ नायगे कि ईश्वर पर जापार रखना मान एक भूल नहि तो क्या है-यानि अपन गृह सके रियेभी एक नौरर रखते हैं उसको तनखा देते हुरेभी अनेक पार कहते है ता वह काम करता है, तो फिर ईश्वर पर अपना ऐसा क्या जोर है ? या ईश्वर अपना ऐसा दणी क्योंकर ह ? कि अपन तो बैठे २ गप गप चला रहे है और ईश्वर जापा मेनेजर (व्यपस्थापक) पनकर आपकी सेगा करे, उन्धुवर्ग ! यह एक मान योग्वेकी टट्टी है-निना परिश्रम मोर्डभी वस्तु प्राप्त नहि हो सक्ती (कईलोग ईश्वर
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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