________________
( २२४ ) अपेक्षा अनित्य अर्थात् परिवर्तित मानते हैं. इसी तरह अन न्ता कालचक्र व्यतीत हुवे और होते रहेंगे, इसी प्रकार प्रत्येक कालचक्रमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो विभाग हुआ करते हैं, जिन प्रत्येक विभागोमें चौवीस २ तीर्थकर याने सच्चे स्याद्वाद दया धर्मके प्रवर्तक हुआ करते हैं यानि देवरचित समवसरणमें विराजकर द्वादशांगीका कथन करते हैं, जिसके द्वारा अनेक जीव मुक्तिको प्राप्त हुवे और होते रहेगे. __ इस उत्सर्पिणी कालमें पितामह युगादि देव प्रथम ती
थंकर श्री ऋषभदेव स्वामीही इस (अद्भुत शब्द ) धर्मकी __ नीव रखनेवाले हुवे हैं, उन्हीके प्रभावसे अनेकानेक जीव इस
" जैनधर्म " के प्रतिपालन करनेसे मुक्तिके भाजन हुबे है. इसी प्रकार सब तीर्थकर* इस महा प्रभावशाली धर्मका प्रचार करते हुवे अनेक जीवोंकों इस दुःखगाह भवार्णवसे पार उतार गये हैं.
* ऋषभदेव १ अजीतनाथ २ संभवनाथ ३ आभिनंदन ४ सुमतिनाथ ५ पद्मप्रभु ६ सुपार्श्वनाथ ७ चंद्रप्रभु ८ पुष्पदन्त ९ शीतलनाथ १० श्रेयांसनाथ ११ वासुपूज्य १२ विमलनाथ १३ अनंतनाथ १४ धर्मनाथ १५ शान्तिनाथ १६ कुन्युनाथ १७ अरनाय १८ मल्लिनाथ १९ मुनिसुव्रत २० नमिनाथ २१ नेमनाथ २२ पार्श्वनाथ २३ महावीर ( वर्द्धमान) २४.