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( २१६ ) करने पधारेथे. श्री भगवंत भी योग्य अवसर देखकर धर्मदेशना देने लगे और राजाको वैराग्य प्राप्त होनेसे अपने लघुवयके पुत्रको राज्य सौंपकर आप दिक्षा ग्रहण करते हुचे और अनेक परिश्रम करनेसे मुनिश्री राजी कहलाये.
एकदा वह राजर्षी धर्मतत्त्वका चितवन करते हुवे शुक्ल ध्यानारुड शुभ भावना मय होकर राजग्रही नगरीके समीप कायोत्सर्ग ध्यानमें खडेथे, इस अवसरमै श्री वीरभगवान समो सय श्रवन कर जनसमूह झुंडके झंड दर्शनार्थको जारहे थे. उन मनुष्यामे दो पुरुष क्षितिप्रतिष्ठित नगरको भी जा रहे थे. उनमेंसे एक मनुष्य अपने पुराणे राजाको देखकर वोला कि हे भाइ ! इन राजर्षीको धन्य है कि जो राज्यलक्ष्मी वित्तवैभवादिको त्यागके चारित्र ग्रहणकर विषम मार्गमें चलनेको अच हुवे. इस तरह सुनकर दुसग मनुप्य बोला कि-अरे इन्हें धन्यवाद काहेका? यह तोधिःकारने तुल्य है क्योंकि इन्होंने कुछभी सोचे समझे बिना अपने लघुवयके पुत्रको राज्य सिपुर्द कर योगी होगये और अब इनके दुश्मन बेचारे बालकको सताते हैं और प्रजा सर्व तबाह होगइ है. तो इन्हें क्या धन्यवाद देना !
मिय पाठक ? दोनों पुरुष वात करते करते भूमि उलंघन करगये और इधर संसारसे निवृत्त होनेपर भी इतकी बात सुन