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( १९०) है ऐसी नीच स्वीओंको! इस दुष्ट रिवाजने लोगोंकी मति कैसी बदल डाली है कि मरा सो छूटा, उसको तो कुच्छ देखते नहीं परन्तु पीछे रहे हुए मिथ्या शोकमें पड़कर अपने आप दुःखी होते हैं यह कितनी मूर्खाई है! अपना प्यारा मस्नानेसे रंज तो होताहै परन्तु क्या वह रंज लोकोंको बतलानेके लिये? तुम्हारी अंतरकी लगनी बाह्य वृत्तिसे दूसरोंको बताओ. अलचत सही है!
शास्त्रभी कहते हैं कि शोक रुदनसे करम वंधते हैं. श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय उनके अध्यात्म सार ग्रंथमें कहते हैं कि अंदनं रूदनं प्रोचेः शोचनं परिदेवनम् । ताडनं लुचनं वेति लिंगान्यस्य विदुषधाः॥
अर्थः-आक्रंदन-उचेस्वरसे रोना, शोक करना, नाम ले कर रोना, सिरकूटना वगैरः को पंडित आर्त ध्यानके लक्षन कहते हैं श्रीनेमिचन्द्र रचित घष्टिशतकमें कहा है कितिहुअण जणं मरंतं दुछुणानि अंतिजे नअप्पाणं । विरमंति न पावाओ विद्धिद्धिद्वत्तणं ताणं ॥ ____ अर्थ-त्रिभुवनके जनको मरण वश होते देखकर प्रमादसे व अभिनिवेशसे अपनी होनेवाली मृत्युको नहीं देखते और पापसे नहीं डरते उनकी धृष्टताको धिक्कारहै; कारण कि