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कस्तीको पहुंचा देता है ! दूसरेका स्वभाव इससे विरुद्ध रहता है । इसलिये वह अति नीच गतिमें भ्रमण करता फिरता है, दुःख पाता है और आखिरकार नरक गतिका मेहमान बनाता है; कहांतक लिखा जाचे दुनियाके तमाम दुःख इसे ईमेलते हैं । इसकी ऐसी प्रबलता है कि अगर कोइ जीव इसके उदयम नर्क गतिके आयुप्यका बंधन कर लेवे और बादमें सम्यक्त्व आकर चाहे अपना शक्तिभर जोर लगावे, मगर उस दालतमें भी मिथ्याखका अभाव होने पर भी, जीव के साथ सम्यक्त्वको उस गतिकी सैर अवश्यमेव करनी पड़ती है। अतः इस दुराचारी मिथ्यात्वको छोडकर सम्यक्त्वको धारण करना चाहिये देखिये ! फिर आत्मिकताका गुल (फूल) कैसा खिलता है ? सर्वज्ञ वीतराग जिन देवके वचनोंपर चलनेसे सम्यक्त्व धर्म हासिल होताहै; और सर्वज्ञसे विपरीत होकर अल्पज्ञ पुरुषोंके मन घडित वचनोंपर चलनेसे मिथ्यात्व धर्म हासिल होता है। मम्यक्त्वं धर्मधारी प्राणियोंकी रायमें फर्क नहीं होता । इनके अंदर धर्मके बारेमें अनेकता कभी भी नहीं पाई जाती । किन्तु पिथ्यात्वियोमही अनेक भेद पाये जाते हैं। क्योंकि इनके चानी मुवानी (मत प्रवर्तक) अल्पज्ञ हुए हैं । इस लिये कोई ) कुछ कह देता है और कोई कुछ । देखिये ! इसी लिये सिद्धसेन दिवाकर महाराज सम्मति तर्कमें लिखते है कि: