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(१३७ ) सनोप वहते परर्दिपु परानाधासु धत्ते शुचम् ।। स्व लाघान करोति नोअतिनय नौचित्यमुल्लघययुक्तोप्य प्रियमक्षमा न रचयत्येतचरित्र सताम् ।।
__ (मिन्दुग्मकरण) ___ भाचार्य -सज्जन-अर्थात् सत्पुस्प पगयेके दोष नही रहाकरने, और अयोके अल्प-तुच्छ गुणोकोभी निम्तर कहनेही रहते है । पुन परसम्पतिम आभिलाप-लमत्सरताको म्वीकारते हैं, परसाधा-परपीडा परको दुय देनेम शोक-सता पो धारण करते है । पुन' आत्मसाधा-आत्ममामा नही करते पुन नीति (न्याय) मार्ग त्याग नहीं करते, पुन औचित्यता-योग्यताका उल्यन नहीं करते, पुनः अपिय अदित करने परभी नक्षमा (कोष) की रचना नही करते अर्यान् श्रोध नहीं करते , इस प्रकार सम्जनांका चरित्र है, सपुरपोप यह उपरोक्त गुण हुआ करते है ।
मोम प्रभागर्यनीने उक्त काव्यमें मपुरपाफे जो भग फरे है वे हमारे परिधनायक अक्षरा मत्स मिरने ये आपका देहो सर्ग कोई ८३ वर्षकी श्यमें हुमा. आप नका तेन मरण पपन मायामा नेत्रोका नहो येमाही था. मापसे गाय लिखनेका पहुनही अधिक प्रेमया एक दिनमें