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(१२३ ) प्रभृति सभी शिष्योगसे आपपर प्रेम अधिकया. सूर्यमलजी भोलेभाले और बडेही सरल परिणामीथे विक्रम संवत् १९१५ मार शुक्र अहमी के दिन आचार्यजी महाराजका देहान्त पहोकरण ग्राम हुआ प्राय सभी शिप्य उस समय आचार्यश्रीके समीपथे जाचार्यश्रीने देहत्यागके योडेक पहरे यह सढाको कहानि-मेरे शिष्यों में सर्वोत्कृष्ट गुणधारक, मुशील, श्रम सहिष्णु आर कर्त य परायण केरलचद्र मुनिहें, और इसीको मृरिपट देना, तुम सभी इसीके आज्ञामें रहो तो तुमारे लिये अच्छाहे. और मूर्यमलगीसे कहा यशापि तू रडाहै किन्तु भोलाएव पठित न होनेसे अन्य तुमे सम्हार नहीं सकेगे इस लिये तु फेवलचद्रकी रक्षामें रहना और लघुभ्राताको शिप्यके समान समझकर सेवा सुश्रुपा करना आर चरिन नायकसे यह कहाकि-जहा तक बनसके पहा तर सूर्यमर को तु निभाना दुपि मत करना वाट आचार्य महाराजन परमेटी ब्यान करते दरे इस नया देहका त्याग कर दिया. सगारोहण क्रिया जनगामानुसारकी गई. गुरुपहाराज के पियोगसे दुखित हुने हमारे चरिन नायरने कुम्नी सरतका जो गौकथा वह उमी गिनसे त्याग कर दिया आपको जैमा चियामा अनुरागया वसाही दण्ड मुद्दा फारानका एम कसरतका भी रडाही मंमया आपकी मानसिक शक्ति के साथ शारीरीक भक्तिभी एसी प्रपल थी कि रावरीके दम पीस व्यक्तिको कुछ चीज नहीं